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शिमला, 24 अक्टूबर। हिमाचल प्रदेश के जनजातीय क्षेत्रों को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया है। अदालत ने स्पष्ट किया कि राज्य के जनजातीय इलाकों में हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 लागू नहीं होगा, इसलिए यहां की बेटियों को पैतृक संपत्ति में अधिकार नहीं मिलेगा।
यह फैसला उन समुदायों पर लागू होगा जो संविधान की अनुसूचित जनजातियों की सूची में आते हैं। शीर्ष अदालत की न्यायमूर्ति संजय करोल और न्यायमूर्ति प्रशांत कुमार मिश्रा की खंडपीठ ने यह निर्णय हिमाचल उच्च न्यायालय के 23 जून 2015 को दिए गए उस आदेश के खिलाफ सुनाया, जिसमें कहा गया था कि जनजातीय इलाकों की बेटियां भी हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के तहत अपने पिता की संपत्ति में हिस्सेदारी की हकदार होंगी।
सुप्रीम कोर्ट ने उस आदेश के पैरा नंबर 63 को निरस्त करते हुए कहा कि यह फैसला विधिक रूप से असंगत था, क्योंकि हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 2(2) के अनुसार यह कानून अनुसूचित जनजातियों पर लागू नहीं होता।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हिमाचल प्रदेश के किन्नौर, लाहौल-स्पीति, पांगी और भरमौर जैसे जनजातीय क्षेत्रों में अब भी “कस्टमरी लॉ” (रिवाजे आम) और स्थानीय परंपराएं ही संपत्ति के उत्तराधिकार से जुड़े मामलों में मान्य होंगी। अदालत ने स्पष्ट किया कि इन क्षेत्रों में पीढ़ियों से चले आ रहे सामाजिक नियम और पारंपरिक व्यवस्था को कानून के दायरे में रखते हुए ही लागू किया जाना चाहिए।
खंडपीठ ने यह भी कहा कि संविधान के अनुच्छेद 341 और 342 के तहत अनुसूचित जाति और जनजातियों की सूची में किसी भी प्रकार का बदलाव केवल भारत के राष्ट्रपति की अधिसूचना से ही किया जा सकता है। न्यायालय या कोई अन्य संस्था इस सूची में संशोधन नहीं कर सकती।
सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले के साथ यह भी दोहराया कि जब तक केंद्र सरकार द्वारा राजपत्र में अधिसूचना जारी नहीं होती, तब तक हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम जनजातीय समुदायों पर लागू नहीं हो सकता।
अदालत ने अपने फैसले में पूर्व में दिए गए ऐतिहासिक निर्णयों मधु किश्वर बनाम बिहार राज्य और अहमदाबाद विमेन एक्शन ग्रुप बनाम भारत संघ का भी उल्लेख किया। इसके अलावा हालिया मामले तिरथ कुमार बनाम दादूराम को उद्धृत करते हुए अदालत ने कहा कि यह कानून केवल उन्हीं पर लागू होगा जिन पर केंद्र सरकार ने अधिसूचना के ज़रिए इसे लागू घोषित किया हो।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हाईकोर्ट ने सामाजिक समानता के नाम पर जिस पैराग्राफ में जनजातीय बेटियों को संपत्ति का अधिकार देने की बात कही थी, वह मूल अपील के दायरे से बाहर था। इसलिए उसे रद्द किया जाता है। अदालत ने यह भी कहा कि भारत का संविधान जनजातीय समुदायों की सांस्कृतिक पहचान और परंपराओं की रक्षा का अधिकार देता है, और अदालतें इन परंपराओं में सीधे हस्तक्षेप नहीं कर सकतीं।
इस फैसले के बाद याचिकाकर्ता सुनील करवा और नवांग बोध ने सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का स्वागत करते हुए कहा कि यह जनजातीय समाज की सांस्कृतिक अस्मिता और पारंपरिक कानूनों की रक्षा करने वाला फैसला है। उन्होंने कहा कि यह निर्णय जनजातीय क्षेत्रों की सामाजिक संरचना और स्थानीय मान्यताओं को सुरक्षित रखेगा।
इस निर्णय के साथ अब स्पष्ट हो गया है कि हिमाचल प्रदेश के जनजातीय क्षेत्रों में बेटियों को पैतृक संपत्ति में अधिकार देने के लिए किसी अदालत के बजाय केंद्र सरकार की अधिसूचना और संसद के कानून की आवश्यकता होगी न्यायिक आदेश से नहीं।
